कोड़ा कागज़-कोड़ा मन_koda kagaz-koda man
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कोड़ा कागज़-कोड़ा मन_koda kagaz-koda man |
ज़िन्दगी के कागज़ तो कोड़े ही थे,
वक्त ने न जाने कैसा संविधान लिखा।
चाहत उसकी, उसूल भी उसके,
नफ़े-नुकसान के सारे हिसाब उसके।
ज़िन्दगी के कागज़ तो कोड़े ही थे,
वक्त ने न जाने कैसा संविधान लिखा।
कोड़े कागज़ पर लिखी न जाने वक़्त ने,
भाषा कौन सी!
या तो धुँधला, या बस सब गिंज-मिंज सा।
जैसे बंद आँखों मे हो,
शुख-दुख की परछाईं एक सी।
ज़िन्दगी के कागज़ तो कोड़े ही थे,
वक्त ने न जाने कैसा संविधान लिखा।
कोड़े मन का पंख तो देखो, आकाश छूने सा,
पर गर्म धूप की फ़ितरत कैसी,
सब छोड़ पीछे पड़ी, उसे झुलसाने सी।
क्या करे कोड़ी क़िस्मत,
कोड़े कागज़ की नाव बना,
कैसे पार करे उलझनों की विशाल नदी
ज़िन्दगी के कागज़ तो कोड़े ही थे,
वक्त ने न जाने कैसा संविधान लिखा।
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#Aparichita हरदम हरवक्त आपके साथ है। #Aparichita कुछ अपने, कुछ पराए, कुछ अंजाने अज़नबी के दिल तक पहुँचने का सफर। #aparichita इसमें लिखे अल्फ़ाज़ अमर रहेंगे, मैं रहूं न रहूं, उम्मीद है, दिल के बिखड़े टुकड़ो को संभालने का सफर जरूर आसान करेगी। #aparichita, इसमें कुछ अपने, कुछ अपनो के जज़बात की कहानी, उम्मीद है आपके भी दिल तक जाएग
Shikha Bhardwaj_____✍️
उलझने हैं
ReplyDeleteपार कहां होती
एक पार कर लो
तो अगली सामने मिलती
सुंदर प्रस्तुति 👌👌