पलक के पर्दे गिरते ही वक़्त में,
जिंदगी की तमाम उम्र कैद हो गई।
पलक के पर्दे गिरते ही वक़्त में, |
जिंदगी की तमाम उम्र कैद हो गई।
आहिस्ता-आहिस्ता बीते वक़्त के पन्ने
लम्हों में सिमटकर, ज़िन्दगी के आईने हो गई।
सयाने हुए परे थे, जो पढ़ा,
उन लम्हों की किताब को,
बंद मुट्ठी में रेत की तरह जिंदगी,
कहीं फ़िसलकर, उन लम्हों में थम गई।
पलक के पर्दे गिरते ही वक़्त में,
जिंदगी की तमाम उम्र कैद हो गई।
हाथ हैं, कुछ यादें, कुछ अधूरे ख़्वाब,
नही है, तो वो वक़्त, जो बस फ़िसल सी गई।
जहन में बस कुछ सवाल रह गए,
और आज भी बीते वक़्त से बस लम्हें पकड़ ली गई।
सोच रही आज भी, क्या सोचा था यही!
जो हाथ मेरे, कुछ अधूरेपन की निशानियाँ रह गई।
पलक के पर्दे गिरते ही वक़्त में,
जिंदगी की तमाम उम्र कैद हो गई।
और मैं बीते ज़िन्दगी की किताब पढ़ती गई।
हर पन्ने के अंत मे,
moral of the story
की तरह सबक........
वक़्त है, जो अपना है, बस इसी की कद्र है,
गर जो वक़्त से वक़्त फिसली,
हर मंजिल दूर, हर रहबर पराया है।
बहुत खूब 👌👌
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