क्या आप जानते हैं_महाभारत में रणभूमि का एक दृश्य ,जब श्री कृष्ण रथ का पहिया लेके_भीष्म की ओर दौड़ते हैं_अर्जुन_कृष्ण को रणभूमि में शस्त्र न उठाने के वचन भंग करने से रोकते हैं।
महाभारत के रणभूमि का एक दृश्य, जब श्री कृष्ण स्वयं रथ का पहिया ले भीष्म पितामह को मारने के लिए उनकी ओर बढ़ते हैं। |
कुरुक्षेत्र का एक चित्रण बहुत ही सुंदर और अद्भुत है। इस चित्र पर कईं बार दृष्टि जा चुकी है और मन चिंतन करने पर मजबूर हो जाता है।
मैं अक्सर आश्चर्यचकित हो सोच में पर जाती हूँ कि क्या माहौल रहा होगा, कितना अद्भुत दृश्य रहा होगा जब स्वयं नारायण भगवान श्रीकृष्ण जिन्होंने रणभूमि में "शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा" ली थी, उसे को तोड़ते हुए रथ का पहिया हाथ मे लेकर परशुराम शिष्य भीष्म की ओर दौड़ होंगे।
अर्जुन और भीष्म पितामह दोनों ही एक दूसरे के अत्यंत प्रिय थे। फिर भी दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध करना था, दोनों का मन युद्ध करने में खिन्न लग रहा था। परन्तु पितामह हस्तिनापुर के प्रति अपनी दायित्व को निभाने के लिए काल बनके पाण्डवसेना पर टूट पड़े थे। श्री कृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में भगवद्गीता का उपदेश भी दे दिया था। अर्जुन ने स्वयं स्वीकार कर लिया था कि उसे अब किसी प्रकार का मोह नही घेर पाएगा, उसने अपने हर मोह और माया का नाश कर दिया है, अब वो पूरे मन से युद्ध करेगा।
मगर तब भी अर्जुन युद्ध से भटक रहा था उसकी रूचि युद्ध में अपने ही प्रियजनों के उपर बार - बार शस्त्र उठाने में दुःखित हो रहा था, जिनकी गोद में खेला था...उन्ही परिजनों की हत्या अर्जुन से नहीं हो पा रहा था और पितामह पाण्डवसेना का संहार किये जा रहे थे।
क्या श्री कृष्ण के हाथों हुई थी रणभूमि में भीष्म पितामहः की हत्या?
सारथी बने हुए श्री कृष्ण रणभूमि में ये सब देख एकदम से उठते हैं और अर्जुन को फिर से एकबार गीता ज्ञान की याद दिलाते हुए कहते हैं कि यदि तू इसी प्रकार करते रहे.…..,तुम युद्ध में कोताही दिखाते रहे, कुछ नहीं कर पाए तो फिर मैं ही जा रहा हूँ पितामह का यूँ पांडव सेना का रणभूमि में संघार और असत्य एवं अनुचित पर कौरवो की विजय होते नही देख सकता। क्योंकि मेरे सामने ही ये अन्याय हो मैं अपनी आँखों के सामने अधर्म को जीतते हुए देखता रहूं..ये कैसे हो सकता है।
सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि जिस कृष्ण रूपी स्वयं नारायण ने रणभूमि में शस्त्र नही उठानी थी, उन्होनें सिर्फ सारथी बने रहने का वचन दिया था.. वो अनायास ही अधर्म को जीत की ओर बढ़ते देख सस्त्र उठाने को तैयार हो जाते हैं, तो दूसरी तरफ भीष्म पितामह जिन्होने पूरी उम्र हस्तिनापुर की सेवा में खुद को झोंक देने की अपनी प्रतिज्ञा में बंधे रहे। विवाह नहीं किया, हस्तिनापुर के राजा नहीं बने, सारा जीवन हस्तिनापुर की सेवा और उनके प्रति कर्तब्यों में लगा दी।
इतना ही नहीं.. उनकी आँखों के सामने पांडव पुत्रो पर अन्याय होता रहा, पर वो चुप ही रहे।भीम को दुर्योधन ने बचपन मे ही जहर देकर मारने तक का प्रयास किया था, लेकिंन पितामह कुछ नहीं कर सके।
लाक्षाग्रह जैसे जघन्य साजिशों के तहत, पूरे पांडव परिवार को उस अग्नि में झोंक कर मार देने तक का प्रयास किया।
"दुर्योधन" जिसने अपने ही चचेरे भाइयों की हत्या (आग लगवाकर पांचों पाण्डवों को उनकी माता सहित जलाने की कुचेष्टा की) का साज़िश रचा।पितामह तब भी कुछ नहीं कर सके, मौन ही रहे।
द्रौपदी जो कि हस्तिनापुर की मान थी , वहां की कुलवधू थी, उसे जुए में दांव पर लगाने से नही रोका.…, भारी सभा में द्रोपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था, पर पितामह गर्दन झुकाये बैठे रहे, कुछ नही बोल सके। पितामह की आँखों के सामने अधर्म पर अधर्म होता रहा, परन्तु पितामह कुछ नहीं कर सके..वो मौन ही रहे।
क्यों भीष्म पितामह हर अन्याय को अपनी आँखों के सामने होता हुआ देख भी चुप ही रह जाते थे?
क्यों? क्योंकि वे हस्तिनापुर के प्रति कर्तव्यनिष्ठ की अपनी प्रतिज्ञा में बंधे थे। और महापुरुषों को अपनी प्रतिज्ञा प्राणों से भी अधिक प्रिय होती है। इसलिये मौत को स्वीकार करने को भले ही तैयार थे, मौत का सामना कर लेंगे परन्तु किसी हाल में प्रतिज्ञा नहीं टूटने देने के प्रति प्रतिबद्ध थे।
परन्तु दूसरी तरफ अद्भुत हैं कृष्ण!
आपने भी तो प्रतिज्ञा की थी कि महाभारत के युद्ध में रणभूमि में शस्त्र नहीं उठाऊंगा लेकिन फिर पितामह को मारने दौड़ पड़े।
जिस प्रतिज्ञा को बचाने के लिये पितामह अधर्म को होते देखते रहे, किसी को भी नहीं रोक सके, न ही कौरव के उच्च महत्वाकांक्षा को और न ही उनके पुत्रों के अधर्म को।
उसी प्रतिज्ञा को कृष्ण ने धर्म को बचाने के लिये तोड़ दिया! तोड़ दिया.... रणभूमि में सिर्फ सार्थी बने रहने के वचन को।
इसके बावजूद अर्जुन को रणभूमि में प्रसन्न हो जाना चाहिये था कि जो काम अर्जुन से नहीं हो पा रहा था; वे सुदर्शनचक्रधारी, नारायण के अवतार श्रीकृष्ण स्वयं करने निकल पड़े थे।
परन्तु अद्भुत ही था रणभूमि का वो दृश्य जब अर्जुन भी! श्री कृष्ण को जाते देख उनकी तरफ ही भागे! ये कहते हुए कि आप अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़िये। मैं ही रणभूमि में युद्ध करूंगा, मैं रोकूंगा पितामह को।
मेरे होते हुए आपको अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े, तो धिक्कार है मुझे!!
अर्जुन के पास स्वर्णिम अवसर था, बिना युद्ध किए ही जीत उसके घर के चैखट पर थी
अपने हाथ अपने ही दादा के खून से लाल करने से बच जाता! बड़ा अवसर मिल रहा था उसे।पितामह जिनकी गोद में अर्जुन खेला था..उनकी हत्या की पाप से वो बच जाता कृष्ण के द्वारा ही भीष्म पितामह मारे जाते। सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती।
मगर यहाँअर्जुन को अपनों के प्रति प्रेम और निष्ठा के भाव को दर्शाता है... उसे खुद से ज्यादा फिक्र है श्री कृष्ण की।
श्री कृष्ण रणभूमि में रथ का पहिया हाथ मे लेके भीष्म की ओर दौड़ रहे हैं, और अर्जुन वायु सी तीव्र गति से कृष्ण तक पहुंचकर उन्हें पकड़ लेते हैं। किसी तरह उन्हें आश्वस्त करते हैं कि आप अपने वचन पर बने रहिए, मेरी आँखों के सामने आपका ये वचन टूटे तो है केशव धिक्कार है मुझपर। रणभूमि में मैं ही युद्ध करूँगा।
यह सब देखकर तो बूढ़े भीष्म को रणभूमि में भी आनंद आ रहा था, वे केवल प्रसन्न हो रहे थे। और सोचने को प्रतिबद्ध हो रहे थे कि यह छलिया कैसा है! मेरी प्रतिज्ञा बचाने के लिये स्वयं की प्रतिज्ञा तोड़ दी। दुर्योधन को मैंने कहा था कि पांचों पाण्डवों के सर काट कर लाऊंगा, या फिर कृष्ण को शस्त्र उठाने पर मजबूर कर दूंगा। और चिरंजीवी होने वाले आशीर्वाद के लिए कहा था कि अपनी पत्नी भानुमति को भेजना, तो उसे अखण्ड सौभाग्यवती भवः का आशीर्वाद दे दूंगा। परन्तु श्री कृष्ण तो द्रौपदी को ले आये और वो अखंड सौभाग्यवती का आशीर्वाद द्रौपदी को दिलवा दिया। अब पाण्डवों को कौन मार सकता था? उसका तो कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता था। एकतरफ भीष्म पितामह का आर्शीवाद तो दूसरी तरफ स्वयं नारायण रणभूमि में अर्जुन का सार्थी बन उसका विजय पताखा लहराना निशचित कर चुके थे। जिस अर्जुन का
साथ रणभूमि में स्वयं श्री कृष्ण दे रहे हो.…उसकी भला विजय यात्रा रोकने में कौन समर्थ हो सकता है।
क्योंकि भगवान श्री कृष्ण स्वयं उनके साथ थे। मगर अब मेरी प्रतिज्ञा झूठी पड़ जाती तो उसी को बचाने के लिये कृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी! क्योंकि मैंने दुर्योधन को कहा था कि मैं पाँचो पाण्डवों का वध कर दूंगा या कृष्ण को रणभुमि में शस्त्र उठाने पर विवश कर दूंगा। कृष्ण ने शस्त्र उठाके मेरी प्रतिज्ञा की लाज रख ली।
भागवत में एकादश श्लोकों में जो भीष्म ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की है, वो सच में बहुत ही सुंदर है। धन्य हैं वो भीष्म, जिनके लिये भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। धन्य हैं अर्जुन, जो भगवान के चरणों में गिरके उन्हें रोक रहे हैं। और धन्य है सनातन धर्म तथा संस्कृति जिसकी रक्षा और स्थापना के लिये भगवान बार बार अवतरित होते हैं।
उम्मीद है आपलोगो को "महाभारत के रणभूमि का एक दृश्य, जब श्री कृष्ण स्वयं रथ का पहिया ले भीष्म पितामह को मारने के लिए उनकी ओर बढ़ते हैं।" पसंद आएगी।आपलोगो से अनुरोध है आप इसे पढ़े और अपने दृष्टिकोण के हिसाब से अपने सुझाव नीचे कमेंट बॉक्स में दे।
धन्यवाद🙏🏼
✍️Shikha Bhardwaj🙏🏼