दादी की कहानियां, हमारे बुजुर्ग और संयुक्त परिवार ही हमारी संस्कृति के रक्षक हैं।
"दादी और बाबा" : किस्सों कहानियों की तरह, ये रिस्ते भी शब्दों में परिचय की तर्ज पर आगे बढ़ने सुरु हो गए हैं। क्योंकि सबको शिर्फ़ आगे बढ़ना है, अपनी नीव को छोड़कर। इसलिए बच्चों को अब एक और सब्जेक्ट जोड़ कर दे देना चाहिए।
ये शब्द अब जैसे बच्चों को किताबों में पढ़ाया जाएगा।और शुरू भी हो चुकी है।स्कूलों से बच्चो को होमवर्क मिलता है, फैमिली ट्री बनाने के लिये, जिसमें उन्हें पिक्चर चिपकाने को कहा जाता है, ताकि बच्चे उनको याद रख सके। और दादी - बाबा ही क्यों? बहुत सारे ऐसे रिस्ते है जो किताबो तक ही सीमित रह जायेगी।परिवार में सदस्य इतने सीमित होने लगे है, बच्चे कैसे जानेंगे? हर घर मे एक बच्चे हैं, या ज्यादा से ज्यादा दो।अभी राखी का त्योहार आ रहा है।कई घरों में भाई नही होंगे तो कई में बहने।चाचा - चाची अब अंकल-आंटी हो गए हैं, जैसे पड़ोसी होते है।
ये सिर्फ परिवारों का सीमीत होना नही हमारे कलचर का खत्म होना है। हमने अपने दादी-बाबा से कहानियां सुनी है। पर आज कितने बच्चे हैं जिनको ये सौभाग्य मिलता है।
आज अचानक से ये बात मुझे शेयर करने का मन किया।बात तो मैं पहले भी दादी से करती थी, पर जब से भारत मे कोरोना आया है, इन चार महीनों से मैं उनसे रोज बात करती हूँ। चूंकि रोज बात होती है, इसलिये कल कुछ सूझा नहीं कि क्या बात किया जाय, तो दादी मुझे भगबान श्रीकृष्ण पर आधारित कहानी सुनाने लगी, दो कहानी सुनाई फिर बोली अब कल सुनाऊँगी फिर हम दोनों फोन रख दिये।
यकीन मानिये फोन रखने के बाद मैं बिल्कुल बच्ची बन गई थी। हर वो छन याद आने लगा जो बचपन में हमने उनके साथ गुजारे थे।
बहुत बड़ी सी फैमिली थी हमारी, जिसमे तीन चाचा, और पांच बुआ। कुछ की शादी हो चुकी थी कुछ की नही।घर का काम औरते और बाहर का काम मर्द किया करते थे और साथ मे उनकी पढ़ाई भी होती थी।
हमारे दादी-बाबा बिल्कुल फ्री हुआ करते थे, जिनके साथ हम खेलते थे और कहानियां सुनते थे। मुझे आज भी याद है, घरेलू बातें क्या करनी चाहिये क्या नही, ये सब दादी ने ही सिखाई है।बाबा भी अक्सर कहानी सुनाया करते थे। उनको रामायण और गीता पूरा जैसे रटा हुआ था। वो सुबह -सुबह 3 बजे चाहे गर्मी, जाड़ा और बरसात ही क्यों न हो, नियम से टहलने निकल जाते थे। लेकिन उससे पहले राम भजन जरूर होता था और अच्छे से कि घर के हर कोने में आवाज़ जाए। भजन गाना तो उनको पसन्द था ही पर दूसरी मनसा ये भी होती थी कि घर के सभी लोग जग जाए और उनमें से कोई एक उनको चाय बनाकर दे दे।हालांकि तीन बजे उठना किसी को पसंद नही था,पर सब उठ जाते थे और उनको चाय भी मिल जाती थी। बाबा चाय पीकर मस्त 2 से 3 गाँव घूमकर आ जाते थे और फिर हमलोगों को कहानियां भी सुनाया करते थे, कभी उस समय की घटी हुई घटना तो कभी भगवान राम और श्री कृष्ण से जुड़ी हुई। करीब तीन साल पहले वो हम सबको छोर कर बैकुण्ठ धाम चले गए, पर अंतिम सांस तक भजन गाना नही छोरे और कहानी सुनाना भी।हां ये बात अलग है कि पहले जैसा परिवार अब नही रहा।सब बुआ की शादी हो गई और चाचा लोग पहले जॉब के सिलसिले में घर से बाहर हुए फिर शादी करके वहीं सेटल हो गए।।
मेरे पापा सबसे बड़े हैं,और गावँ के पास भी इसलिए ये सौभाग्य मेरे भतीजा सबको भी मिला कि वो अपने परबाबा और परदादी का सानिंध्य प्राप्त कर सके। मेरी भावियों को भी वो अपने पोती की तरह ही मानते थे और मेरी दादी को वो महारानी कहा करते थे। दादी के पास अब सब हैं लेकिन बाबा नही।
जो भी हो दादी मेरी अभी भी बहुत अच्छी हैं ।हां चेहरे पर थोड़ी झुड़ियाँ बढ़ गई है, पर दिल से अभी भी पहले जैसी ही है।
मेरी भी एक ही बेटी है, मैं भी हसबैंड के जॉब की वजह से बाहर ही रहती हूँ, लेकिन छुट्टियों में मैं उसे गाँव लेकर जरूर जाती हूँ।उनके दादा जी जॉब सेरिटायर्ड पर्सन हैं, इसलिए वो गाँव एन्जॉय कर रहे हैं।पर हाँ बीच-बीच मे वे आते रहते हैं।मॉडर्न लाइफ स्टाइल के चक्कर मे सुविधाएं तो बढ़ गई हैं, लेकिन इंसान सोच से संकुचित हो गया है। छुट्टियों में वो हिल स्टेशन तो चला जाता है, लेकिन गांव की मिट्टी उसे नही खिंच पाती। परिवार के लोगो की जगह क्लब और किट्टी पार्टी ने ले ली है।दीवाली में घर में पूजा की जगह सिनेमा हॉल जाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं।
ये हमारे लिए विडम्बना ही है कि हम पश्चिमी सभ्यता की नकल करने मे इतने खो गए हैं कि अपनी संस्कृति और सभ्यता सब भूलते जा रहे हैं। बस यही कारण है कि हमारे बच्चे जब घर से बाहर निकलते हैं, तो दूसरे की बातों से इनफ्लुएंस बहुत जल्दी हो जाते हैं।
भले ही जमाना बहुत बदल गया है लेकिन हमारेई संस्कृति कभी पुरानी नही होगी।
दादी की कहानियां, हमारे बुजुर्ग और संयुक्त परिवार ही हमारी संस्कृति के रक्षक हैं।
Dadi-ki-kahaniyan-hmare-bujurg-aur-sanyukt-parivar-hi-hmari-sanskriri-ke-rakshak-hai
वाकई हमसे बड़े लोगो का साथ हमारे खुद के विकास और हमारी संस्कृति के लिए बहुत जरूरी है।
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