शीर्षक:-- एक दिन ख्वाब में....
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एक दिन ख्वाब में.... |
कुछ धुंधली-धुंधली सी तस्वीर....
जहन में आकर बैठी है।
वही कशिश आज मैं
कागज़ पर उतारने बैठी हूँ।
तुहारा पीछे से आकर...
अचानक से गले लगाना।
जाने इस रिस्ते का क्या नाम दूँ?
एक वो दौर था,
लगा जिंदगी तन्हा गुजर रहा था।
एक ये पल है, जहां सब पा जाने जैसा था
न जाने कैसा अपनापन था,
मेरी आँखों से अश्क़ ढ़लते ढ़लते रह गए।
जैसे जिंदगी भर के लिए खरीद लिया था।
जाने क्या नाम दूं ?
पर सबसे अनमोल....
हाँ, इससे पहले.. ऐसा सुकूँ...
नही, पहले कभी नही।
मेरी हर साँस गिरवी थी,
अभी के लिए, सदा के लिए।
दोस्त, रिस्तेदार... भाई, पापा....
मालूम नही...पर उससे बढ़कर सुकूँ,
कोई नही कभी नही।
हाँ, वो ख़्वाब था,
एक दिन का ख्वाब....
अरसा गुजर गए,
मैं महसूस कर सकती हूँ....
वो गरमाहट, वो अपनापन...
ख़्वाब में नही, हकीकत में।
आँखे बंद करने की जरूरत नही।
पर ख्वाब तो अधूरे होते हैं,
अधूरे ही रहे....
बस वो दरम्यां जज़्बात के जो धागे....
बंधे थे, जाते नही।
ऐसे धागे, जो मेरे थे, मेरे खुद के।
मेरे अकेले के....
उससे बस मैं मिल पाई,
क्योंकि ख़्वाब... मेरे थे।
आज भी ख़्वाब ही रहे।
हाँ, वही जज़्बात है,
जो आज तक ठहरी है।
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सुंदर शीर्षक....
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति👌👌👌