जाती हुई दिसम्बर..... और आती हुई जनवरी की धुँध संग...

जाती हुई दिसम्बर..... 
और आती हुई जनवरी की धुँध संग...

जाती हुई दिसम्बर..... 
और आती हुई जनवरी की धुँध संग...


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जाती हुई दिसम्बर..... 
और आती हुई जनवरी की धुँध संग,
एक आकृति आकर बसी, मेरे अंतर्मन।
वही आहट, वही अपनापन...
काश......! 
चलता फिर वही समय का चक्र...
सारे बिगड़े सवार कर,
मैं कर लेता तुमको आलिंगन।
या फिर हाथ पकड़ मैं भी घुल जाता,
खो जाता उसी धुँध संग।
जो आकृति बसी मेरे अंतर्मन।

जाती हुई दिसम्बर..... 
और आती हुई जनवरी की धुँध संग...

गुजरे वक्त से लम्हें चुराकर...
उसे पलको पर अपने सजाकर...
हर रात....सिरहाने बुला लेता,
शब्दों में अपनी सज़ा लेता...
फिर गुनगुनाता यूँ ही रात भर...
जैसे जिंदगी का आखिरी होता वो सफऱ।

जाती हुई दिसम्बर..... 
और आती हुई जनवरी की धुँध संग...


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