लौटती बारिशों के मौसम में कुछ अधूरे से एहसास...
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लौटती बारिशों के मौसम में कुछ अधूरे से एहसास... |
काँपते होंठों पर ख़ामोशियाँ लफ़्ज़ चुन रही थीं
✍️ लेखिका: सौम्या श्रीवास्तव
कुछ मुलाक़ातें वक़्त के किसी कोने में ठहर जाती हैं। मौसम बदलते हैं, बादल आते-जाते हैं, लेकिन कुछ लम्हे वहीं के वहीं रुके रहते हैं — अधूरे, खामोश, मगर गहराई से भरे हुए।
जाती बारिशों के दिन थे वो
जब बहुत दिनों बाद मिले थे हम
बारिश भी यूँ कर हो रही थी
गोया कुछ टूटा रहा हो आसमान के सीने में ..!
कितना कुछ था,
जो हम कहना चाहते थे एक दूसरे से
फिर भी चुपचाप खड़े थे हम दोनों
गुफ़्तगू के दो अलहदा सिरों को थामे हुए ..!
काँपते होंठों पर ख़ामोशियाँ लफ़्ज़ चुन रही थीं
और उठती / झुकती पलकों के सहारे
डबडबाती आँखें बहुत कुछ कह रही थीं ख़ामोशी से ..!
गोया कुछ टूटा रहा हो आसमान के सीने में ..!
बहुत देर तलक खड़े रहे हम
लगभग टूटी सी, ज़ंग लगी बेंच के सहारे
एक टूटती हुई शाख़ पर नज़रें टिकाए हुए
ये अक्स थे, हमारे बेनाम मरासिम का ..!
मुझे पता ही ना चला,
जाने कब बढ़ गए तुम
उस मुड़ती राह के जानिब ..!
और ......
मैं तलाशती रही तुम्हारे क़दमों के निशान ...
ये भूलकर कि
पानी पर नहीं मिला करते हैं गुज़रते कदमों के निशान ..!
बहुत पसंद था मुझे
अब भी पसंद है ये बारिशों का मौसम
इस मौसम लौट के जो आ जाते हैं भटके हुए बादल ..!
लेकिन तुम्हारी पसंद ज़रा मुख़्तलिफ़ सी थी
मैं इंतज़ार में थी, मगर
इस बारिश में फिर एक दफ़ा
तन्हा लौटते बादलों ने तस्दीक़ कर
मुझ तक ये पैग़ाम पहुँचाया तुम्हारा
पसंद नहीं हैं तुम्हें आज भी .....
लौटती बारिशों का मौसम, और लौटना भटके बादलों का ....
🌧 समापन विचार:
ये कविता सिर्फ एक मुलाक़ात की नहीं,
बल्कि उन सभी अधूरे रिश्तों की कहानी है
जो वक़्त के किसी मोड़ पर छूट गए।
बारिशें आती हैं, जाती हैं —
मगर कुछ मौसम हमारे भीतर हमेशा के लिए ठहर जाते हैं।
Saumya Srivastava की कविता.
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