कैसा ये ईश्क़ था तुम्हारा ?





कैसा ये ईश्क़ था , तुम्हारा ?

कभी शुकूँ के पल तो दे न पाया

बस बर्बादियों का फसाना लिखता आया।

दिमाग़ ने तो तकरीर कई बार लगाया

पर दिल पर बस, तुम्हारा ही चलता आया।

जहाँ विश्वास की ऐसी लत लगी थी मुझको,

कि हर कोई सच्चा दिखता आया।

एक तेरे प्यार ने आईना ऐसा दिखाया,

कि फिर हर चेहरा फ़रेब से ढका नजऱ आया।

कैसा ये ईश्क़ था तुम्हारा ?

मैंने तेरी हर लफ़्ज, सर माथे चढ़ाया,

लेकिन, तुझे तो फ़क़ीरी लिखी थी,

तेरी बेग़ैरती तुझे फ़क़ीर बना ले आया।

कहते हैं, ईश्क़ खुदा को पा लेने जैसा है।

लेकिन तू तो , खुदा को ही दगा दे आया।

कैसा ये ईश्क़ था तुम्हारा ?

जानती हूँ, मुझसे तेरा था दिल भर आया,

तुझे फिर से था, नया फ़साना याद आया।

हमेसा की तरह काश! फिर से एक सॉरी कह देता,

फिर माफ़ कर देती तुझे, पर तु कोई वजह न दे पाया।

और  इल्जामों की फ़ेहरिस्त लम्बी बना आया।

जितनी भी, तुझसे थी मुझमे सम्वेदनाएँ,

उन सबका तू विसर्जन कर आया।

कैसा ये ईश्क था तुम्हारा ?

बस बर्बादियों का फ़साना लिखता आया।

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          ✍️Upeksha🥀






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