क्यूँ रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता...,कविता।

क्यूँ रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता...



क्यूँ रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता...



क्यूँ रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता...

 न जाने क्यूँ........?

रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता है.....

क्या देखता है....क्या देखना चाहता है...?

हाँ.... ख़ामोश तो वो भी है...ख़ामोश मैं भी।

शोर तो...बस उसकी चाँदनी करती है...

इधर वही शोर मेरी जुबाँ भी करती है।

पर क्या जो मुफलिसी मेरे दिल में तमस कर रही.?

वही तमस उसे भी तो तन्हा नही कर रही...?

क्या समझाऊँ उसे...?

मेरा चाँद तो बुझ गया...तेरी चाँदनी तो फ़िर आएगी..

क्यूँ अधिर हुआ जा रहा... 

देख मुझे मेरी साँसे तो अब भी चल रही।

क्यूँ रोज़ाना चाँद मेरी खिड़की पर चला आता...

चाँद मेरी खिड़की पर आता तो है....

साथ ही इस मुफलिसी भरे दिल में...

मेरे चाँद की न जाने कितनी क़ीमती यादों के....

सुनहरी मोहरे है छोड़ जाता...।

चाँद तू आया कर...

खामोशी में ही सही....ढेरों बाते करेंगे....

कुछ अपनी सुनाना..... ढेरो मेरी सुन जाना।

क्यूँ चाँद मेरी खिड़की पर है आया...

देर से ही सही...उसकी ये शबब मेरी समझ है आया।

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कविता परिचय

तन्हाई में बहुत सी ऐसी बाते होती है...जो या तो ज़िन्दगी में खलल देती है..या कभी किसी भी वस्तु से खुद को ही दिलाशा देने का हुनर इंसान सिख ही जाता है। ठीक इसी तरह...इसमे जिस चरित्र को दर्शाया गया है.... उसका ख़ुद का सब तो खो ही गया है..... लेक़िन चाँद को दिलाशा देने से बाज़ नही आती।कभी चाँद को दिलाशा तो कभी चाँद से बातें... उसके दिल को सुकून देती है।

उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी.....पढ़िए और कमेंट में सुझाव जरूर दीजिए।

धन्यवाद🙏🏼🙏🏼

         ✍️Shikha Bhardwaj ❣️



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