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कैसे कहूँ ! कि वो मेरी रूह का तिश्नगी है। सम्भव कहाँ की बसर हो.. एक पल भी उसके बिना... अब वही मेरी वन्दगी है। रूह में तो बसा है... पर इन आँखों की तिश्नगी का क्या.. पलके शरारत पर उतर आई है..... दरम्यां चिलमन बन बैठी है । सीधा रगों में बहता है... फ़िर ये तिश्नगी कैसा है... मुमकिन है कि वो हो मेरे सामने ही कही... पर कदम स्तब्ध और धड़कनों की रेस हो.. तिश्नगी..! का क्या यही प्रारूप है? मन मृग उपन्यास बोल गया हो.. और लव कपकपा कर रह गया हो?
बहुत हुआ ये तिश्नगी का खेल... प्रत्यक्ष हो मेरे...., रोक लो धड़कनों के खेल को.. पलको की शरारत को... बता दो तिश्नगी को... की तुम हो....प्रत्यक्ष हो.., रगों में..., चिलमन के पीछे। बने रहो तुम्ही मेरी रगों में लहू की तरह.. कि जब इसकी रफ़्तार खत्म हो, मैं भी खत्म मिलूँ तुम्हे कहीं।
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कैसे कहूँ ! कि वो मेरी रूह का तिश्नगी है।-kaise kahun ki vo meri rooh ka tishnagi haikaise kahun! ki vo meri ruh ka tishnagi hai, Sambhav kahaan ki basar ho... Ek pl bhi uske bina... Ab vhi meri vandgi hai..
✍️Shikha Bhardwaj❣️
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