क्यूँ सब कुछ रूठा-रूठा सा है?

क्यूँ सब कुछ रूठा-रूठा सा है?

क्यूँ सब कुछ रूठा-रूठा सा है?





 क्यूँ सब कुछ रूठा-रूठा सा है?

साँसों का ये सिलसिला टूटा-टूटा सा है।

कहीं तो थमे.. कहीं तो रुके।

निर्जन मन के धरा पर...

क्यूँ ख्वाबों का अंकुर फूटा सा है?

जीवन मे ये कैसा रस घुला है...

रिस्तों की ढेर पर......

अपनेपन का दम घुटा है।

गर जो उम्मीदों की भूले से भी डोर बंधी...

उसी ढ़ेर तले फिर साँसों का लेना दूभर सा है।

कल जो दिखी चाँदनी थी...

आज उसे काली घटा निगल पड़ा है।

सब कुछ रूठा सबकुछ टूटा

जीवन की ये सीख बड़ी है...

किससे शिकवे और शिकायत किससे?

सुझावों की तो लिस्ट बड़ी है.....

साथ मिले किसी का...कोई न अपना सा है।

जान हथेली पर ले मेरे लिए जीने वाले...

मुझे उपेक्षित करने के....

उसके पास कारण मुझसे भी बड़े है।

सबकुछ रूठा सबकुछ टूटा....

अब एक कड़ी बांधो ख़ुद से.....

थोड़ी ईश्क खुद से भी कर लो....

जो होता है होने दो.....

कुछ बेपरवाही के कुछ पल यूँ ही जी लेने दो....

संग किसी का छुटे..वादे कोई टूटे....

पहला रिस्ता ख़ुद से खुद के लिए।

भले ही कुछ भी टूटे ,रूठे या छूटे।



                    Shikha Bhardwaj✍️

1 Comments

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  1. बहुत सुंदर है कविता आपकी धन्यवाद जी।। शुभ रात्रि

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