दर्द मेरे तन्हाईयाँ बांट लेती है...
महफ़िलों से तो बस रुसबाइयाँ समेट लाती हूँ। |
दर्द मेरे तन्हाईयाँ बांट लेती है...
महफ़िलों से तो बस रुसबाइयाँ समेट लाती हूँ।
बेहतर है, कि खुद को ही ढूंढा जाए...
ज़िन्दगी की सफ़र के लिए
काँधे पूरी श्रद्धा से.....
सिर्फ अर्थी को ही दिए जाते हैं।
गैरों से तो मैं निबट लेती हूँ...
पर क्या करूँ, ख़ामोशी ओढ़ लेती हूँ
जब मेरे भरोसे ही मुझको छलतें है।
दर्द मेरे तन्हाईयाँ बांट लेती है...
महफ़िलों से तो बस रुसबाइयाँ समेट लाती हूँ।
ज़िन्दगी के ये फ़लसफ़े इतने पुराने हो गए हैं
की एक जगह रफू करती हूँ,
और दूसरी जगह उघड़ने लगते हैं।
मेरे भरम का भी भला हो,
खुशफ़हमी ही सही, ख़ुश तो रहती हूँ
रिस्ते इस्तेमाल करते हैं,
और मैं उनकी मुहब्बत समझ बैठती हूँ ।
दर्द मेरे तन्हाईयाँ बांट लेती है...
महफ़िलों से तो बस रुसबाइयाँ समेट लाती हूँ।
महफ़िलों से तो बस रुसबाइयाँ समेट लाती हूँ।
✍️Shikha Bhardwaj ❣️