परवाज, संस्कारों और संस्कृति की।

परवाज, संस्कारों और संस्कृति की।

परवाज, संस्कारों और संस्कृति की।

 परवाज, संस्कारों और संस्कृति की। 



परवाज, संस्कारों और संस्कृति की।


कविता परिचय:

 ये कविता उन अभिभावकों के लिए हैं, जो अपने बच्चों के भविष्य बनाने में इतने मसगुल हो जाते हैं कि उनको कभी पता ही नही चलता, कि कब वो बच्चो को परवाज़ यानी दुनिया के संग रेस लगाना सिखाते-सिखाते अपनी ही जड़ो से अलग कर,अपने ही हाथों से दूर कर देते है और उनको एहसास भी नही होता। बच्चे और ऊंची परवाज़  में मगन हो जाते हैं और अभिभावक उनको देखकर खुश होते हैं, और उनकी ऊंचाईयों को और परवाज़ देने के लिए और ज्यादा मेहनत करने लगते हैं।

अच्छी बात है, आप बच्चो में परवाज भरिये, लेकिन कभी अपनी जमीन से, कभी संस्कारो से, घर के बड़े -बुढो, सगे-सम्बन्धियो से भी मिलबाइए। हो सकता है कि उसका समय थोड़ा नष्ट हो, वो रेस में थोड़ा पीछे रह जाए, लेकिन जब समाज, संस्कृति और संस्कार उसके साथ होगा तो वो हर परवाज़ से ऊपर होगा, वो सिर्फ पैसे बनाने की मशीन नही, बल्कि बुढ़ापे में आपके आत्म संतुष्टि का भी कारण बनेगा। जो कि अभी के समाज मे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। बच्चे सिर्फ आगे बढ़ते रहते हैं और समाज एवं संस्कृति पीछे छूटती जा रही है।
परवाज, संस्कारों और संस्कृति की। कविता, अभिव्यक्ति


समाज मे बृद्धा आश्रम बढ़ते जा रहे है, कहीं बूढ़े माँ-बाप घर मे अकेले बच्चो के फोन के सहारे जिंदगी काट रहे है। कई तो इतने बदकिस्मत होते हैं कि घर में लास पड़ी होती है, और जब उनकी बदबू बाहर आने लगती है तो पड़ोसी घर का दरबाजा तोड़कर उनको बाहर निकालते हैं। और फिर समाज उन बच्चो को ही दोष देती है, जिनको हमने ही सब छोड़कर नई-नई सिर्फ परवाज भरने की ही शिक्षा दी है। अब जब बच्चे सबकुछ बस छोड़ना ही सीखकर परवाज़ के पीछे लगे हैं, तो क्या वो सचमुच दोषी है?

बच्चो को पहले सबकुछ पकड़ना सिखाइए। समाज को संस्कार को, संस्कृति को।परवाज़ वो खुद भर लेंगे, आपको साथ लेकर, आपको छोड़कर नही।

 

परवाज, संस्कारों और संस्कृति की। 


परवाज, संस्कारों और संस्कृति की।


ज़िन्दगी गुजार दी मैंने,
तिनको को चुन, घोंसले बनाने में।
लेक़िन बारिश से पहले, 
तुफानो का अंदेशा कहाँ लगा पाया।


घोंसले बनाने में तो बीत गई जिंदगी,
पर जब उजड़ा तो, तो बस उजड़ गया।
कब मेरे ही परिंदे, एक-एक कर उड़ गए,
मैं खड़ा रहा, शून्य सा बस देखता  ही गया।


क्या कहता ? जब उड़ना मैंने ही सिखाया था।
बस गगन की ऊंचाइयों से परिचय कराया,
कुछ मुलाक़ात, जड़ो से भी करबाइ  होती।
शिक्षा जरूरी था, पर संस्कारो से कहां ऊपर था।


दुनिया के रेस में विचारों को दौड़ाता गया।
मैं तिनके जोड़ संग , परिंदों को बस परवाज़ देता गया।
वो परवाज़ भरते रहे, मैं उन परवाज़ो में दम भरता गया।
हवाओ से नही, तू बादलो के ऊपर उड़,
तू घर नही,शहर छोर।शहर नही देश छोड़,
और भागता जा दुनिया के आगे।



कभी तो कहा होता, तू आ एक पल, पास बैठ।
इस मिट्टी से भी तो परिचय कराया होता।
हमारी  संस्कृति-संस्कारो से भी मिलवाया होता।

परवाज, संस्कारों और संस्कृति की। 

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                               ✍️Shikha Bhardwaj❣️


परवाज, संस्कारों और संस्कृति की। कविता, अभिव्यक्ति

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दोस्तो, कहने के लिए बहुत कुछ है, मैं और भी बहुत कुछ इस परवाज़ टॉपिक पर लिख सकती हूँ, लेकिन मैं आज आप सबके विचार जानना चाहती हूँ।ये सिर्फ अभिव्यक्ति या विचार नही, हमारी,आपकी और इस पूरे समाज मे बीमारी की तरह फैल रही है। बस इतना ही please अपने सुझाव जरूर दे।सिर्फ सराहना नही, अगर कुछ गलत है तो वो भी बताए।

धन्यवाद🙏🏼🙏🏼



3 Comments

If you have any doubt, please let me know.

  1. Very true.liife is not earning.but learning,since the basic need of life is not success.but sanskar.

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  2. शिखा जी, बहुत अच्छा टॉपिक उठाया है आपने। ये समस्या शुरू तो हो चुकी है और आने वाले दिनों में और गंभीर ही होने वाली है। जिंदगी सिर्फ धनोपार्जन के लिए रेस बन के रह गई है। हमारे स्टेटस का पैमाना ही धन हो गया है। हमारी मानसिकता संकुचित हो चुकी है। इस रेस में घर बिखरते जा रहे। माता पिता धनोपार्जन में व्यस्त हैं। बच्चों को संस्कार देने के लिए वक्त कहां है। इससे अच्छे तो वो दिन थे जब महिलाएं गृहिणी हुआ करती थी। पूरे घर को व्यवस्थित तरीके से चलाना और बच्चों में संस्कार डालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, इसके लिए अलग से कुछ सोचना नहीं होता था। बच्चे दादा दादी नाना नानी के साथ कब संस्कार सीख लेते थे पता भी नहीं लगता था।

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है आपकी जो मन को छू ले।। वाह वाह शुक्रिया जी

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