उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।

 उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।

ज़िन्दगी आख़िर में सबको बुढ़ापा और शरीर से थोड़ा बहुत लाचार करती ही है।उम्र के इस पड़ाव में अपनों के साथ से मानसिक सपोर्ट मिलता है, इसका ध्यान रखे।

 उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।


 उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।


सोंच फ़िर आकर वहीं अटक गई,
उम्र की ये किताब शाम की तरह ढल गई।

रिस्तों की क्या कहिए,
उम्र के साथ वो भी लापता हुई।
ज़िन्दगी थोड़ा है,थोड़े की जरूरत में बीत गई।

फ़िर भी अपना कुछ नही,
वक्त वखूबी समझा गई।
उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।

हम अब घर की पुरानी मेज की तरह हुई,
उम्र पर वक्त की पड़ी धूल आईना दिखा गई।

उलझनों का दूसरा नाम है जिंदगी,
वक़्त के हर कच्चे-पक्के डोड़ समझा गई।

देखे कितना और वक़्त बचा है,
ज़िन्दगी की पन्नों को पढ़ने में,
और कितने चेहरे उघरेंगे, झूठ की नकाब उतरने में।


हर कोई पर्दा ओढ़े तना खड़ा है,
कैसे कोई इनमें अपना हमदर्द ढूँढे अकेले में।

सोंच फिर आकर वहीं अटक गई,
उम्र की ये किताब शाम की तरह ढल गई।


 उम्र की ये किताब, शाम की तरह ढल गई।

Umra-ki-ye-kitab-sham-ki-tarah-dhal-gai


मेरे पाठकों का बहुत बहुत आभार, आपके विचार और सलाह को आतुर।

✍️Shikha Bhardwaj ❣️

1 Comments

If you have any doubt, please let me know.

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति 👌👌

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