आख़िर कैसे ये मैं कह दूं.... Aakhir kaise ye mai kah doon.

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 आख़िर कैसे ये मैं कह दूं....
कि मैंने तुझे वक्त के कब्र में.. 
कैद कर, दफन कर दिया है।
तू अब मेरे ख़यालो में नही,
मेरे दिल की गहराई में नही।
हाँ मेरी बातों में नही...
लेक़िन मेरी यादों में भी नही!


आख़िर कैसे ये मैं कह दूं....
कि सुबह की चाय संग, 
रोजमर्रा के काम संग,
मेरी सोच में.....
मेरी हर ख़ुशी में, या गम में..
मेरी हर आदतों में तू शामिल नही!


आख़िर कैसे ये मैं कह दूं....
इन फ़िज़ाओं की बिखरी ख़ुशबू में,
नवम्बर की सौम्य सर्द में,
दिसंबर की कपकपाती ठंढ में
या फिर गुनगुणी धूप में.... 
तू शामिल नही!


आख़िर कैसे ये मैं कह दूं....
अनायास ही भीगे पलकों में,
काम करते हर जरूरत में,
जिंदगी के सफ़र में....
सफ़र में आए....
अनगिनत नए रास्तों में,
उस रास्तों के सही - ग़लत चुनाव में,
उस चुनाव के निर्णय में,
तुम शामिल नही हो!


आख़िर कैसे ये मैं कह दूं....


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